11 December 2017

इक रास्ता है ज़िन्दगी जो थम गए तो कुछ नहीं...

 [ कथादेश के अक्टूबर 2017 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का आठवाँ पन्ना ]

सर्द सीलन भरे पत्थरों से बने इस बंकर से दूर, इस बेजान एके-47 के कुंदे से परे, इस ऊँचे पहाड़ की भेदती हवाओं से कहीं हटकर...चाहता हूँ बँट जाना मैं भी बेतरतीब-सी कुछ पंक्तियों में छोटे-बड़े, ऊपर-नीचे लिखे हुये चंद जुमलों में, तमाम  बंदिशों से आजाद, उन्मुक्त, बदहवाश...कि समेट सकूँ खुद की कविता में पापा की बिगड़ती तबीयत, माँ की व्याकुल पेशानी वाली सिलवटें, बारुद की गंध, रेत भरी बोरियों से बने सरहद पर के ये सारे मोर्चे, दीपिका पादुकोण की मुस्कुराती आँखें, कुछ लड़कियों के भूले-बिसरे नाम, अपनी इकलौती छुटकी की खिलखिलाहट और ढ़ेर सारी...ढेर-ढेर सारी छुट्टियाँ...ये सब कुछ एक साथ |

कितना मुश्किल है सबको...किसी को भी समझा पाना कि ड्यूटी पर मुस्तैद खड़े सिपाही के लिए कई बार छुट्टी के बारे में सोचना तक गुनाह जैसा लगता है...

...कि मेरे विराम में भी चलना निहित था और तुम देखते रहे बस ठहराव मेरा

...कि उन क्षणों का आर्तनाद जिन्हें तुम स्वप्न में भी नहीं चाहोगे सुनना और जिन्हें भोगना था मेरी नियति, भोगने की चीख़ नहीं सुनी तुमने...नियति की किलकारियाँ सुनी

...कि प्रतिबद्धताओं की नई परिभाषायें लिखने में टूटी उँगलियों से लिखा नहीं जाता जवाब तुम्हारे सवालों में छुपे आरोपों का

...कि सच तो ये है कोई मायने नहीं रखता ये देखना, ये सुनना, ये सवाल उठाना

...कि जब पिता की विलुप्त होती स्मृतियों में भी नहीं रहता शेष मेरा समर्पण या मेरा शौर्य, किंतु बचा रह जाता है मेरी वाजिब अनुपस्थितियों का ग़ैरवाजिब निकम्मापन !

और फिर यूँ ही ययाति का क़िस्सा याद आता है देर रात के इन फैले-फैले सरहद के आशंकित रतजगों में पापा के बारे सोच कर | अपने ही श्वसुर और दैत्यों के गुरू शुक्राचार्य के क्रोध से उपजे शाप से ग्रसित हो असामयिक बुढ़ापे को पाकर, ययाति ने जाने किस मानसिक विचलन में आकर अपने पाँच पुत्रों से उनके यौवन के हिस्से की उधार-याचना की थी कभी प्राचीन काल में । बचपन में पढी हुई कहानी में जितना याद आ रहा कि शायद पाँच पुत्रों में से सबसे छोटा वाला, पुरू, ही तैयार हुआ था पिता की इच्छा पूरी करने को । इसी कहानी से एक आवारा-सी सोच अपना सर उठाती है यूँ ही कि इस चकित करने वाले तकनीकी-युग में विज्ञान के पास भी ऐसा कोई जुगाड़ होता काश कि रक्त-दान, अंग-दान की तरह ही कोई पुत्र अपने पिता को खुद के यौवन का हिस्सा भी दान कर पाता...! आह ये सारे ‘काश’ !!!

रतजगों की तासीर भी जाने कैसे-कैसे ‘काश’ बुनती रहती है !

इधर पता चला कि कल रात देर तक...बहुत देर तक छींकता रहा था वो सलेटी-सा पसरा हुआ पत्थर | हाँ, वही पत्थर...वो बड़ा-सा, जो दूर से ही अपने आकार और अपने सलेटीपने की बदौलत एकदम अलग सा नजर आता है उतरती ढ़लान पर, जिसके ठीक बाद चीड़ और देवदारों की श्रृंखला शुरू हो जाती है और जिसके तनिक और आगे जाने के बाद आती है वो छद्म काल्पनिक समस्त विवादों की जड़, वो सरहद नाम वाली रेखा | हाँ, वही सलेटी-सा पसरा हुआ पत्थर, जिस पर हर बार या तो किसी थकी हुई ‘दोपहर’ का या किसी पस्त-सी ‘शाम’ का बैठना होता है गश्त से लौटते हुये ढाई घंटे वाली खड़ी चढ़ाई से पहले सांस लेने के लिए और सुलगाने के लिए विल्स क्लासिक की चौरासी मीलीमीटर लम्बी नन्ही-सी दंडिका |

...कैसे तो कैसे हर बार कोई ना कोई घबड़ायी-सी पसीजी हुई आवाज आ ही जाती है गश्त खत्म होने के तुरत बाद पीछे आती गश्त की टोली से "वहाँ उतनी देर तक बैठना ठीक नहीं साब, दुश्मन स्नाइपर की रेंज में है वो पत्थर और फिर उन सरफ़िरों का क्या भरोसा" | हम्म... सच ही तो कहती हैं वो पसीजी-सी आवाजें | लेकिन जाने कैसा तो भरोसा उस पत्थर का है, उस पत्थर पर के सलेटी पड़ाव का है, उस चंद मिनटों वाली अलसायी बैठकी का है, उन चीड़ और देवदारों की देवताकार (दैत्याकार नहीं) ऊंचाईयों का है और उस धुआँ उगलती नन्ही-सी दंडिका का है | कौन समझाये लेकिन उन घबड़ायी-सी पसीजी हुई आवाजों को ! बस एक अरे-कुछ-नहीं-होता-वाली मुस्कान लिए हर बार वो थकी-सी ‘दोपहर’ या वो पस्त-सी ‘शाम’ सोचने लगती है कि अगली बार शर्तिया उस पत्थर की पसरी हुई सलेटी-सलेटी छाती पर ग़ालिब का कोई शेर या गुलज़ार की कोई नज़्म लिख छोड़ आनी है | क्या पता उस पार से भी कोई सरफ़िरी दोपहर या शाम आये गश्त करते हुये, पढे और जवाब में कुछ लिख छोड जाये...!!!

कितने सफ़े
हुये होंगे दफ्न
पत्थर की चौड़ी छाती में

कोई नज़्म तलाशूँ
कोई गीत ढूँढ लूँ
कि
एक सफ़ा तो मेरा हो... 

...और कल की ‘शाम’ गश्त से लौटते समय बारिश में नहाई हुई थी | ढाई घंटे की चढ़ाई जाने कितनी बार फिसली थी ‘शाम’ के कदमों तले और हर फिसलन ने मिन्नतें की थीं ‘शाम’ से कि ठहर जाओ रात भर के लिए यहीं इसी पत्थर के गिर्द ठहरना तो मुश्किल था ‘शाम’ के लिए...हाँ, वो चंद मिनटों वाला पड़ाव जरूर कुछ लंबा-सा हो गया था...कि बारिश की बूंदों से गीली हुई चौरासी मीलीमीटर वाली विल्स क्लासिक की उस पतली-दुबली नन्ही दंडिका ने बड़ा समय लिया सुलगने में और उस देरी से खीझ कर पानी भरे जूतों के अंदर गीले जुराबों ने तो ज़िद ही मचा दी थी | ज़िद...जूतों से बाहर निकल पसरे पत्थर पर थोड़ी देर लेट कर उसकी सलेटी गर्मी पाने की ज़िद | सुना है, देर तक चंद नज़्मों की लेन-देन भी हुई जुराबों और पत्थर के दरम्यान | जुराबें तो सूख गई थीं...वो लेटा सा सलेटी पत्थर गीला रह गया था |

...और देर तक छींकता रहा था वो पत्थर कल रात...पसरी-सी सलेटी-सलेटी छींकें !

दूर वाले मोर्चे से संतरी-ड्यूटी पर खड़े नायक महेश के गाने की आवाज़ आ रही है...

जाते हुए राही के साए में सिमटना क्या
इक पल के मुसाफ़िर के दामन से लिपटना क्या
आते हुए कदमों से, जाते हुए कदमों से
भरी रहेगी रहगुज़र जो हम गए तो कुछ नहीं
इक रास्ता है ज़िन्दगी जो थम गए तो कुछ नहीं



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2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-12-2017) को जानवर पैदा कर ; चर्चामंच 2815 पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. Good write up sir ,imagery and all that makes a good reportaz.

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