26 December 2017

कुहरे की मुस्तैद जवानी जैसे सैनिक रोमन...उफ़

[ कथादेश के दिसम्बर 2017 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का दसवाँ पन्ना ]

कुहरे की तानाशाही शुरू हो चुकी है | सूरज की सत्ता को चुनौती देने की दिसम्बर की साजिश आख़िरकार रंग ले ही आई | कमबख्त़ दिसम्बर को कतई गुमान नहीं कि सूरज को चुनौती देने के फेरे में यहाँ सरहद के बाशिन्दों की चुनौतियाँ कितनी बढ़ गयी हैं | हाथ भर आगे ना दिखाई देना नियंत्रण-रेखा के कँटीले तारों पर सरफिरे जेहादियों की घुसपैठ के बरख़िलाफ़ चौबीसो घंटे मुस्तैद खड़े सीमा-प्रहरियों के लिए कितनी मुश्किलें बढ़ा देता है...काश कि शब्दों में उसका बयान हो पाता | इस तेरह हज़ार फीट की रेजर शार्प श्रृंखला और इसके तीव्र उतार-चढ़ाव चप्पे-चप्पे पर प्रहरियों की तैनाती को दुश्वार बनाते हैं | ये लो...इस ‘चप्पे-चप्पे’ से एक बड़ी ही दिलचस्प बात याद आ गयी |

अभी दो-एक महीने पहले पड़ोस की बटालियन के जिम्मेदारी वाले इलाके से मिली संदिग्ध घुसपैठ की ख़बर पर नीचे वादी में तहलका-वहलका जैसा कुछ मचा हुआ था | मीडिया की बेसिर-पैर की ख़बरों और अटकलों को नेस्तनाबूद करने की गरज से स्थानीय पुलिस ने प्रेस-कॉन्फ्रेंस बुलाने का इरादा किया | शहर के एसपी को नियुक्त किया गया था पत्रकारों के सवालों का जवाब देने के लिए | बड़ा ही प्यारा सा युवक आया हुआ यहाँ का एसपी नियुक्त होकर...बिहार के समस्तीपुर जिले का...आँखों में और सीने में जोश, उमंगें और मजबूत इरादों की टोकरियाँ भरे हुए | अक्सर फोन करते रहता है इधर ऊपर के हालात की जानकारी लेने के लिए तो अच्छी दोस्ती हो गयी है उस से | प्रेस-कॉन्फ्रेंस शुरू होने से कुछ देर पहले संभावित प्रश्नों की सूची से गुज़रते हुए और अपने जवाबों की तैयारी करते हुए एक सवाल पर अटक गए एसपी साब | करियर के पहले प्रेस-कॉन्फ्रेंस के निर्वहन का सहज नर्वसनेस और उस अटपटे सवाल के सटीक जवाब की तलाश में जाने कैसे तो कैसे उसे इस ऊँचे पहाड़ वाले मित्र की याद आयी | फोन पर तनिक उत्तेजित आवाज़ में पहले तो उसने अपने प्रेस-कॉन्फ्रेंस की संक्षिप्त सी जानकारी दी भूमिका स्वरुप और फिर उस अटके हुए सवाल को दुहराया | बड़ा ही बेतुका सा सवाल था...रगों में दौड़ते-फिरते खून में उबाल लाने वाला सवाल...”नियंत्रण-रेखा की सुरक्षा में जब चप्पे-चप्पे पर फ़ौज तैनात है तो फिर घुसपैठ कैसे हो जाती है ?” | कौन समझाए इन खबरचियों को यहाँ की ज़मीनी बनावट की मुश्किलें ! काश कि उन्हें अपने कैमरे के साथ यहाँ चप्पे-चप्पे पर खड़े करने की स्वतंत्रता होती हमारे पास ! फिर पूछता उलट कर उनसे ये सवाल कि उनके कैमरे का जूम-लैंस क्या-क्या कवर कर पा रहा है | खैर...फोन के उस तरफ़ उत्तेजित एसपी सटीक जवाब की प्रतीक्षा कर रहा था | इस बेतुके सवाल के जवाब में नियंत्रण-रेखा की परेशानियाँ, इन तंग पहाड़ों के ख़तरनाक उतार-चढ़ाव और मौसम की बेरहमी की व्याख्या करने का कोई तुक नहीं बनता था | इस अनर्गल बेतुके से सवाल का जवाब भी कुछ इसी के वेब-लेंग्थ पर मगर पूरे तुक के साथ दिया जाना चाहिए था | उधर एसपी ने फिर से सवाल दोहराया, इधर स्वत: ही मेरे मुँह से निकला...

“चप्पे-चप्पे के बीच में हायफ़न भी तो होता है |”

रिसीवर के उस पार जवाब सुनकर एसपी साब की क्षणिक ख़ामोशी के पश्चात उठे एक कर्णभेदी ठहाके ने जवाब के मुकम्मल होने की मुहर लगा दी थी | पता चला प्रेस-कॉन्फ्रेंस ज़बरदस्त हिट रहा और कुछ स्थानीय अखबारों ने इस ‘हायफ़न’ वाले वक्तव्य को ही हेड-लाइन बनाया |

किन्तु अखबारों के हेड-लाइन से इन रेजर शार्प श्रृंखलाओं पर मौजूद ‘हायफ़न्स’ का उपचार तो नहीं हो पाता ना और ना ही इस जालिम दिसम्बर की करतूतों पर कोई अंकुश लगता है | वैसे दिसम्बर से कुछ ख़ास यादें जुडी आती हैं हमेशा...पासिंग आउट की यादें | बीस साल हो गए अब तो | एकेडमी के प्रशिक्षण-काल को भी गिनूँ तो चौबीस साल...उफ़ ! एक युग ही नहीं बीत गया इस बीच ! कितना कुछ तो बदल गया इन चौबीस सालों में | मुल्क भी... फ़ौज भी | बारहवीं के पश्चात आई०आई०टी० की देश भर में तथाकथित रूप से सम्मानित प्रवेश-परीक्षा निकालने के बाद भी नेशनल डिफेन्स एकेडमी(एन०डी०ए०), खड़गवासला को चुनने वाला वो लड़का कभी इसी काया का निवासी हुआ करता था, अब सोच कर हँसी आती है | एन०डी०ए० के जुनून का सर चढ़ने का श्रेय जाता भी है, तो कमबख्त़ एक फ़िल्म को | वर्षों पहले...नौवीं या दसवीं कक्षा के वक़्त की बात होगी शायद | घर में उस छोटे-से अपट्रौन टेलीविजन के ब्लैक एंड व्हाईट स्क्रीन पर देखी गयी एक अतिसाधारण सी फ़िल्म ‘विजेता’ टीनएज मानस-पटल पर इस कदर असाधारण सा प्रभाव डालेगी, कोई सोच भी सकता था क्या ! फ़िल्म के मुख्य किरदार ‘अंगद’ की एक सामान्य युवा से लेकर विशिष्ट योद्धा बनने तक की यात्रा इतनी कौतुहलपूर्ण और झकझोरने वाली थी कि उस नन्हे से अपट्रौन टीवी के स्क्रीन को घूरता हुआ वो चौदह-पंद्रह साल का लड़का किसी जादू-टोने से सम्मोहित हुआ-सा स्क्रीन पर जीवंत अंगद हो जाना चाहता था...एन०डी०ए० के विस्तृत भव्य प्रांगण में कठोर प्रशिक्षण लेता हुआ कैडेट अंगद हो जाना चाहता था वो वहीं के वहीं, ठीक उसी वक़्त | दुनिया ही तो बदल गयी थी उस लड़के की इस फ़िल्म को देखने के बाद | जुनून-सा कोई जुनून था जैसे सर पर सवार, जो हर लम्हा बस “एन०डी०ए०-एन०डी०ए०” की ज़िद उठाये रखता था और फिर उसने ख़ुद को तैयार करना शुरू किया सचमुच का “कैडेट अंगद” बनने के लिए...जबकि संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित होने वाली प्रवेश-परीक्षा और उसमें बैठ पाने की योग्यता में अभी तीन साल से भी ज़्यादा की दूरी थी | नियति इसी को कहते हैं क्या...डेस्टिनी ? उसके जन्म के सात साल बाद रिलीज हुई फ़िल्म जिसे उसने फ़िल्म की रिलीज के सात साल बाद देखा, वो भी चौदह इंच की टीवी के झिलमिलाते श्वेत-श्याम स्क्रीन पर और फिर उस ‘देखने’ ने पूरी पृथ्वी ही तो अपने ध्रुव पर उसके लिए उलट दिशा में घुमा कर रख दिया | हाँ, शायद ! यही तो नियति है...अपने विशालतम अवतार में ठहाके लगा कर हँसती हुई नियति ! डायरेक्टर गोविन्द निहलानी साब और प्रोड्यूसर शशि कपूर साब को तो भान तक ना होगा कि उनकी बनायी एक किसी फ़िल्म ने एक लड़के की ज़िन्दगी ही बदल कर रख दी है |

अब सोचता हूँ...इतने सालों बाद कि उस रोज़ जो उस फ़िल्म के दर्शन ना हुए होते, तब भी क्या मैं इस ऊँचे पहाड़ पर सरहद की निगहबानी में यूँ बैठा होता..यूँ ही इस दिसम्बर की कुहरे में डूबी साजिश के परखच्चे उड़ाने की जुगत कर रहा होता !!! 

कुहरे की इस मनमानी का इकलौता उपाय अब बर्फ़बारी ही है...बस | किन्तु चिल्ले कलां (कश्मीर की सर्दी का सबसे क्रूर हिस्सा जो तकरीबन चालीस दिनों का होता है...दिसम्बर के उतरार्ध से ले जनवरी के आख़िर तक) से पहले बर्फ़ कहाँ गिरने वाली और चिल्ले कलां के शुरू होने में अभी कम-से-कम दो हफ़्ते और शेष हैं | तब तक मुस्तैदी अपना चरम माँगती है समस्त प्रहरियों से | इस कमबख्त़ दिसम्बर पर कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं कभी | सुनेगी ओ डायरी मेरी ? सुन :-

ठिठुरी रातें, पतला कम्बल, दीवारों की सीलन...उफ़
और दिसम्बर जालिम उस पर फुफकारे है सन-सन ...उफ़

बूढ़े सूरज की बरछी में ज़ंग लगा है अरसे से
कुहरे की मुस्तैद जवानी जैसे सैनिक रोमन...उफ़

हाँफ रही है धूप दिनों से बादल में अटकी-फटकी
शोख़ हवा ऐ ! तू ही उसमें डाल ज़रा अब ईंधन...उफ़

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21 December 2017

ख़्वाहिशें सुलगती हैं इश्तहार में लिपटे देख कर हसीं मंज़र

कब तलक पढ़ेंगे हम नींद की कहानी में करवटों के अफ़साने
सिलवटों के किस्सों में सुन सको जो सुनते हो रतजगों के अफ़साने

ख़्वाब भर चली रातें थक के जब निकल जायें सुबह के दरीचों से
अनमने-से दिन लिक्खे दफ्तरों में टेबल पर फाइलों के अफ़साने

आँसुओं ! तुम्हीं सारे दर्द गर बयां करते, फिर ये तुम समझ पाते
क़हक़हों के चिलमन में हैं छुपे हुये कितने हादसों के अफ़साने

चाँदनी परेशां थी, खलबली थी तारों में, रात थी अज़ब कल की
बादलों की इक टोली गुनगुनाये जाती थी बारिशों के अफ़साने

तुम भले हुये तो क्या, हम भी हैं भले तो क्या, क्या भला भलाई का
वो बुरे हुये तब भी, हैं उन्हीं के दम से ही हाकिमों के अफ़साने

ख़्वाहिशें सुलगती हैं इश्तहार में लिपटे देख कर हसीं मंज़र
जेब कसमसाते हैं रोज़-रोज़ सुन-सुन कर हसरतों के अफ़साने

दाद तो मिले सारी शेर को ही ग़ज़लों में, कौन ये मगर समझे
इक रदीफ़ बेचारा, कैसे वो निभाता है काफ़ियों के अफ़साने

[ पाल ले इक रोग नादाँ के पन्नों से ]


14 December 2017

मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको...

[ कथादेश के नवम्बर 2017 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का नौवाँ पन्ना ]

शामें सर्द होने लगी हैं | जाने कब से अटका हुआ...जाने का नाम ही नहीं ले रहा था कमबख्त़ सितम्बर ये | यूँ लग रहा था कि मुई तेरह हज़ार फिट की अम्बर-चुम्बी ऊँचाई इस सितम्बर को इतना भाने लगी है कि अक्टूबर को आने का रास्ता ही नहीं देगी ये | मगर आ ही गया अक्टूबर आख़िरकार...दूर नीचे ढ़लान से हाँफता हुआ...सितम्बर को परे धकेलता | कभी-कभी लगता है जैसे कि जाने कब से यहीं हूँ...इसी पहाड़ पर मोर्चा जमाये | कहीं और भी था क्या मेरा वजूद इससे पहले ? या कि सृष्टि की शुरुआत से यहीं हूँ मैं ? किससे पूछूँ ? बारह सौ जवानों और पंद्रह-सोलह ऑफिसरों का ये भरा-पूरा कुनबा भी मानो इस विराट फैले एकांत के लिए कम पड़ता है कई बार | किसी कुनबे की सरदारी से विकट एकाकी काम और कोई नहीं होता होगा शायद ! बंकरों से आता हुआ हर टेलीफोन कॉल्स... रेडियोसेट पर का हर संदेशा शरुआत में सीने को खटका ही देता है, जब तक पहले “ऑल ओके” ना कह दिया जाए | किसी रोज़ कमबख्त़ ये ह्रदय एकदम अचानक रुक ही ना जाए अंदेशों के बोझ तले इस निपट एकांत में !  कितनी बेकार-सी मौत होगी ना वो ! सितम्बर के महीने में ये मृत्यु-गन्ध किस क़दर पूरे जिस्म पर पसीजी-सी चिपकी रहती है | विगत आठ सालों से कुछ ज़ियादा ही उदास करता आ रहा है ये महीना...इस एकांत को तनिक और-और विस्तृत करता हुआ साल-दर-साल |

उदासी एक लम्हे पर गिरी थी...सदी का बोझ है पसरा हुआ सा | देखते-देखते आठ साल हो गए सुरेश को विदा कहे | हाँ...आठ साल ही तो ! सुरेश...सुरेश सूरी...मेजर सुरेश सूरी...कि जिसका होना तो शौर्य को चलते-फिरते परिभाषित करना था... लेकिन जिसका ना होना नियति ने तय कर रखा था कहीं-ना-कहीं अपनी फ़ेहरिश्त में जैसे मेरे होने के लिए | कितना आसान हो जाता है ना सब कुछ, जब हम मान लेते हैं कि ऐसा होना तो लिखा ही हुआ था...डेस्टिनी ! फिर मृत्यु तो ख़ुद ही नियति ठहरी पूरी-की-पूरी अपने होने में ! अभी उस रोज़ जब कैप्टेन राकेश ने पूछा था सुरेश का ज़िक्र आने पर कि “कैसा लगता है सर मौत के उन आख़िरी क्षणों में”...तो हँसी आ गयी थी मुझे | मौत का आख़िरी क्षण ? मौत का कोई भी क्षण आख़िरी कैसे हो सकता है ? जीवन...ज़िन्दगी का आख़िरी क्षण होता है | मौत का तो बस वो एक ही क्षण होता है ना...पहला क्या और आख़िरी क्या ?

उस दिन सारे के सारे ऑफिसर मुझसे उस आठ साल पहले वाले सितम्बर की कहानी सुनना चाहते थे | मैं फिर से टाल गया था और उसी टाले जाने के एवज में वो सवाल मिला था...कैसा लगता है मौत के आख़िरी क्षणों में | हँसी आयी थी, लेकिन पल भर में ख़ुद ही सहम कर गायब हो गयी थी वो कमबख्त़ हँसी...कि ज़िक्र सुरेश का हो रहा हो तो इस हँसी की हिमाक़त कि आए ! इन आठ सालों में लगभग हर रोज़ ही तो जी उठता है और फिर-फिर मृत्यु को वरण करता है वो स्मृतियों के क्रूर पटल पर | यूँ-होता-तो-यूँ-ना-होता या फिर ऐसे-ना-किया-होता-तो-वैसा-ना-होता वाले हज़ारों-लाखों विकल्पों को उधेड़ता-बुनता मन सुरेश को हर बार वापस ज़िंदा करता है और वापस मारता है | उसके लिए तो शायद कोई क्षण आया ही नहीं आख़िरी जैसा...ज़िन्दगी का या फिर मौत का ही | वो आख़िरी क्षण तो आख़िर में चिपका रह गया मेरे वजूद संग ही...मेरी नियति बन कर | राकेश के उस सवाल पर अब सोचता हूँ तो याद आता है कि ख़ून से तर-ब-तर जिस्म को उस रोज़ क्या-क्या ख़याल आ रहे थे | पहला तो यही था कि सुरेश ज़िंदा है...अभी सब ठीक हो जाएगा...कि ये एक दु:स्वप्न मात्र है जो नींद से जागते ही मिट जाएगा | दूसरा कि मेरे नहीं रहने के बाद छुटकी अपने पापा के बिना कैसे बड़ी होगी ! कुछ और भी उलटे-सीधे से ख़याल...एक पूरी तरह सुनियोजित ऑपरेशन का यूँ अप्रत्याशित रूप से इस तरह करवट लेने पर ग़ुस्सा...जिस्म से टपकती ख़ून की बूंदों पर ग़ुस्सा...ख़त्म होती रायफल की गोलियों पर ग़ुस्सा | उन आख़िरी क्षणों में शायद ग़ुस्सा ही सबसे चरम भाव था | एक फ्लैश-सा पूरी ज़िन्दगी का आँखों के सामने से गुज़रना जैसा कुछ...हा ! वो शायद फिल्मों में ही होता है |

ये कहना कि शरीर में चुभी हुईं गोलियाँ उतना दर्द नहीं देतीं जितना एनेस्थिशिया देने के बावजूद डॉक्टरों की कैंची से उसी शरीर से बाहर निकाली जा रही गोलियाँ देती हैं...ऐसा कुछ कहना पोएटिक होगा या रियलिस्टिक ? इस डायलॉग पर देर तक हँसे थे सारे ऑफिसर उस दिन और उनकी वो हँसी पहली बार सितम्बर के महीने में भी सकून दे रही थी | मे बी...जस्ट मे बी दैट द पेन इज फायनली एक्सेप्टिंग द माईट ऑव डेस्टिनी ! कई-कई बार मन करता है कि फोन करूँ सुरेश के घर...आन्टी से बात करूँ देर तक...उन्हें बताऊँ अपने मन में चलतीं इन तमाम पोएटिक या रियलिस्टिक सी उधेड़-बुनों को | एक शायद वहीं तो हैं इस पूरी पृथ्वी जो इन उधेड़-बुनों की तह तक पहुँच सकें | लेकिन फिर हिम्मत नहीं होती ! कुछ अजीब-सा धुक-धुक करने लगता है सीने की गहरी तलहट्टियों में कहीं...कुछ-कुछ वैसी ही धुक-धुकी जो उस रोज़ उठी थी सीने में, जब गोलियों की आवाज़ चारों ओर से उठने लगी थी अचानक ही |

अभी...अभी के अभी दूर किसी अन्तरिक्ष से आती हुई गोलियों की आवाज़ें मानो ड्रम-बीट का पार्श्वसंगीत प्रदान कर रही हों जिस पर क़दमताल करती फिर रही हैं ये स्मृतियाँ ! स्मृतियाँ...सुरेश...सितम्बर...सब के सब ‘स’ से ही क्यों शुरू होते हैं ? सितमगर सितम्बर...हा ! व्हाट अ क्लीशे’ !!

गुलज़ार की नज़्म याद आती है...

मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चाँद उफ़क़ तक पहुँचे
दिन अभी पानी में होरात किनारे के क़रीब
ना अंधेरा ना उजाला होना अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आए
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको


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11 December 2017

इक रास्ता है ज़िन्दगी जो थम गए तो कुछ नहीं...

 [ कथादेश के अक्टूबर 2017 के अंक में प्रकाशित "फ़ौजी की डायरी" का आठवाँ पन्ना ]

सर्द सीलन भरे पत्थरों से बने इस बंकर से दूर, इस बेजान एके-47 के कुंदे से परे, इस ऊँचे पहाड़ की भेदती हवाओं से कहीं हटकर...चाहता हूँ बँट जाना मैं भी बेतरतीब-सी कुछ पंक्तियों में छोटे-बड़े, ऊपर-नीचे लिखे हुये चंद जुमलों में, तमाम  बंदिशों से आजाद, उन्मुक्त, बदहवाश...कि समेट सकूँ खुद की कविता में पापा की बिगड़ती तबीयत, माँ की व्याकुल पेशानी वाली सिलवटें, बारुद की गंध, रेत भरी बोरियों से बने सरहद पर के ये सारे मोर्चे, दीपिका पादुकोण की मुस्कुराती आँखें, कुछ लड़कियों के भूले-बिसरे नाम, अपनी इकलौती छुटकी की खिलखिलाहट और ढ़ेर सारी...ढेर-ढेर सारी छुट्टियाँ...ये सब कुछ एक साथ |

कितना मुश्किल है सबको...किसी को भी समझा पाना कि ड्यूटी पर मुस्तैद खड़े सिपाही के लिए कई बार छुट्टी के बारे में सोचना तक गुनाह जैसा लगता है...

...कि मेरे विराम में भी चलना निहित था और तुम देखते रहे बस ठहराव मेरा

...कि उन क्षणों का आर्तनाद जिन्हें तुम स्वप्न में भी नहीं चाहोगे सुनना और जिन्हें भोगना था मेरी नियति, भोगने की चीख़ नहीं सुनी तुमने...नियति की किलकारियाँ सुनी

...कि प्रतिबद्धताओं की नई परिभाषायें लिखने में टूटी उँगलियों से लिखा नहीं जाता जवाब तुम्हारे सवालों में छुपे आरोपों का

...कि सच तो ये है कोई मायने नहीं रखता ये देखना, ये सुनना, ये सवाल उठाना

...कि जब पिता की विलुप्त होती स्मृतियों में भी नहीं रहता शेष मेरा समर्पण या मेरा शौर्य, किंतु बचा रह जाता है मेरी वाजिब अनुपस्थितियों का ग़ैरवाजिब निकम्मापन !

और फिर यूँ ही ययाति का क़िस्सा याद आता है देर रात के इन फैले-फैले सरहद के आशंकित रतजगों में पापा के बारे सोच कर | अपने ही श्वसुर और दैत्यों के गुरू शुक्राचार्य के क्रोध से उपजे शाप से ग्रसित हो असामयिक बुढ़ापे को पाकर, ययाति ने जाने किस मानसिक विचलन में आकर अपने पाँच पुत्रों से उनके यौवन के हिस्से की उधार-याचना की थी कभी प्राचीन काल में । बचपन में पढी हुई कहानी में जितना याद आ रहा कि शायद पाँच पुत्रों में से सबसे छोटा वाला, पुरू, ही तैयार हुआ था पिता की इच्छा पूरी करने को । इसी कहानी से एक आवारा-सी सोच अपना सर उठाती है यूँ ही कि इस चकित करने वाले तकनीकी-युग में विज्ञान के पास भी ऐसा कोई जुगाड़ होता काश कि रक्त-दान, अंग-दान की तरह ही कोई पुत्र अपने पिता को खुद के यौवन का हिस्सा भी दान कर पाता...! आह ये सारे ‘काश’ !!!

रतजगों की तासीर भी जाने कैसे-कैसे ‘काश’ बुनती रहती है !

इधर पता चला कि कल रात देर तक...बहुत देर तक छींकता रहा था वो सलेटी-सा पसरा हुआ पत्थर | हाँ, वही पत्थर...वो बड़ा-सा, जो दूर से ही अपने आकार और अपने सलेटीपने की बदौलत एकदम अलग सा नजर आता है उतरती ढ़लान पर, जिसके ठीक बाद चीड़ और देवदारों की श्रृंखला शुरू हो जाती है और जिसके तनिक और आगे जाने के बाद आती है वो छद्म काल्पनिक समस्त विवादों की जड़, वो सरहद नाम वाली रेखा | हाँ, वही सलेटी-सा पसरा हुआ पत्थर, जिस पर हर बार या तो किसी थकी हुई ‘दोपहर’ का या किसी पस्त-सी ‘शाम’ का बैठना होता है गश्त से लौटते हुये ढाई घंटे वाली खड़ी चढ़ाई से पहले सांस लेने के लिए और सुलगाने के लिए विल्स क्लासिक की चौरासी मीलीमीटर लम्बी नन्ही-सी दंडिका |

...कैसे तो कैसे हर बार कोई ना कोई घबड़ायी-सी पसीजी हुई आवाज आ ही जाती है गश्त खत्म होने के तुरत बाद पीछे आती गश्त की टोली से "वहाँ उतनी देर तक बैठना ठीक नहीं साब, दुश्मन स्नाइपर की रेंज में है वो पत्थर और फिर उन सरफ़िरों का क्या भरोसा" | हम्म... सच ही तो कहती हैं वो पसीजी-सी आवाजें | लेकिन जाने कैसा तो भरोसा उस पत्थर का है, उस पत्थर पर के सलेटी पड़ाव का है, उस चंद मिनटों वाली अलसायी बैठकी का है, उन चीड़ और देवदारों की देवताकार (दैत्याकार नहीं) ऊंचाईयों का है और उस धुआँ उगलती नन्ही-सी दंडिका का है | कौन समझाये लेकिन उन घबड़ायी-सी पसीजी हुई आवाजों को ! बस एक अरे-कुछ-नहीं-होता-वाली मुस्कान लिए हर बार वो थकी-सी ‘दोपहर’ या वो पस्त-सी ‘शाम’ सोचने लगती है कि अगली बार शर्तिया उस पत्थर की पसरी हुई सलेटी-सलेटी छाती पर ग़ालिब का कोई शेर या गुलज़ार की कोई नज़्म लिख छोड़ आनी है | क्या पता उस पार से भी कोई सरफ़िरी दोपहर या शाम आये गश्त करते हुये, पढे और जवाब में कुछ लिख छोड जाये...!!!

कितने सफ़े
हुये होंगे दफ्न
पत्थर की चौड़ी छाती में

कोई नज़्म तलाशूँ
कोई गीत ढूँढ लूँ
कि
एक सफ़ा तो मेरा हो... 

...और कल की ‘शाम’ गश्त से लौटते समय बारिश में नहाई हुई थी | ढाई घंटे की चढ़ाई जाने कितनी बार फिसली थी ‘शाम’ के कदमों तले और हर फिसलन ने मिन्नतें की थीं ‘शाम’ से कि ठहर जाओ रात भर के लिए यहीं इसी पत्थर के गिर्द ठहरना तो मुश्किल था ‘शाम’ के लिए...हाँ, वो चंद मिनटों वाला पड़ाव जरूर कुछ लंबा-सा हो गया था...कि बारिश की बूंदों से गीली हुई चौरासी मीलीमीटर वाली विल्स क्लासिक की उस पतली-दुबली नन्ही दंडिका ने बड़ा समय लिया सुलगने में और उस देरी से खीझ कर पानी भरे जूतों के अंदर गीले जुराबों ने तो ज़िद ही मचा दी थी | ज़िद...जूतों से बाहर निकल पसरे पत्थर पर थोड़ी देर लेट कर उसकी सलेटी गर्मी पाने की ज़िद | सुना है, देर तक चंद नज़्मों की लेन-देन भी हुई जुराबों और पत्थर के दरम्यान | जुराबें तो सूख गई थीं...वो लेटा सा सलेटी पत्थर गीला रह गया था |

...और देर तक छींकता रहा था वो पत्थर कल रात...पसरी-सी सलेटी-सलेटी छींकें !

दूर वाले मोर्चे से संतरी-ड्यूटी पर खड़े नायक महेश के गाने की आवाज़ आ रही है...

जाते हुए राही के साए में सिमटना क्या
इक पल के मुसाफ़िर के दामन से लिपटना क्या
आते हुए कदमों से, जाते हुए कदमों से
भरी रहेगी रहगुज़र जो हम गए तो कुछ नहीं
इक रास्ता है ज़िन्दगी जो थम गए तो कुछ नहीं



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04 December 2017

स्वधायै स्वहायै नित्यमेव भवन्तु...

स्मृतियों के पन्ने एकदम से मचलते हैं और शुरुआती कुछ पन्नों को छोड़ कर बारिश से सराबोर एक पन्ना खुलता है | उस रोज़ बारिश ऐसी थी...ऐसी थी बारिश कि गाँव की पगडंडियाँ बह रही थीं | 

कितने साल बीत गए उस झमट कर उमड़ी बरसात के ? गिनता है वो लड़का उँगलियों पर तो गिनती तीस पर जाकर थमकती है | तीस साल से कुछ ज़्यादा ही तो शायद...

...भीगे पन्ने से बहती हुयी एक पतली पगडंडी पर चलती हुई आपादमस्तक भीगी हुई स्मृति की बूँदों-सी टपकती कोई खिलखिलाहट बगल के पोखर की मछलियों को एक अजब ही उछाल दे रही है | आदेशनुमा आमंत्रण मिलता है लड़के को पिता की ओर से बाहर चलने का | किलक भरी हँसी को हैरानी हो रही है कि हैरत भरी हैरानी की हँसी छूट रही...ये तय कर पाना बहुत ही मुश्किल है फिलहाल सर्दी-जुकाम और टॉन्सिल से अक्सर ग्रसित रहने वाले और अमूमन बारिश में भीगने पर घोषित पाबंदी में बंधे उस लड़के के लिए | देखता है वो पिता के एक हाथ में काले रंग का छाता और दूजे हाथ में सफ़ेद डोर से लिपटी हुई बाँस की एक बहुत ही लम्बी छड़ी | छ: फीट लम्बे पिता के साथ डग भरता हुआ लड़का बहती पगडंडी पर छै-छपाक करता हुआ चलता है | 

बारिश को जैसे हड़बड़ी सी मची हुई है पिता-पुत्र की जोड़ी को भिगोने की और छाता बंद पड़ा पिता के हाथों में उपेक्षित महसूस कर रहा है | दस मिनट से ऊपर की वो तर-बतर पदयात्रा बगल के पोखर पर जाकर संपन्न होती है | बाँस की वो लम्बी छड़ी एक नपे-तुले झटके के साथ अपने जिस्म पर लिपटी सफ़ेद डोर को खोलती है और पिता के कुरते की जेबी से निकली हुई आटे की गुल्ली डोर के दूसरे सिरे से लगी काँटे में जा उलझती है | लड़का आँखे फाड़े देखता है सारी प्रक्रिया...पिता के लम्बे हाथों की उड़ान से नियंत्रित पीछे से घूम कर उठती हुई सफ़ेद डोर को पोखर के पानी में डूबते...और उसी डोर के पानी में डूबे सिरे से बंधी कुछ ही क्षण बाद एक मछली को बाहर आते हुए | प्रक्रिया तीन बार दोहराई जाती है और अब तक उपेक्षित बंद पड़ा छाता आधा खुलता है और अपने उदर में तीन मछलियों को समाहित कर वापस बंद हो जाता है | 

बहती पगडंडी पर वापसी की यात्रा अपने साथ के एक अजब-ग़ज़ब से रोमांच को लिए लड़के की स्मृतियों में क़ैद हो जाती है |

सालों बाद...तीस-साल-से-कुछ-ज़्यादा-ही-तो-शायद के बाद...उसी पोखर की घाट पर पंडितों द्वारा उच्चरित “ॐ देवताभ्य: पितृभ्यश्च मह्योगिभ्य एव च नम: स्वधायै स्वहायै नित्यमेव भवन्तु” को दोहराता हुआ वो लड़का पोखर की नयी मछलियों की उछाल देखता है और समस्त देवताओं से प्रार्थना करता है उस झमट कर उमड़ी हुई बरसात में भीगते छ: फीट लम्बे पिता के साथ डग भरते हुए छै-छपाक की वापसी के लिए | 

[sketch curtsey Sheree from watercoloursplus.com]